
बस्तर से विशेष रिपोर्ट
हाल ही में बस्तर की जमीन फिर लाल हुई, बस्तर के सुकमा जिले में एक बार फिर बड़ा नक्सली हमला हुआ है. इस हमले में सीआरपीएफ के 9 जवान शहीद हुए हैं. ये हमला सुकमा जिले के किस्टाराम इलाके में हुआ है. ये ब्लास्ट लैंडमाइन के जरिए किया गया है. इस दौरान नक्सलियों और सुरक्षाकर्मियों के बीच मुठभेड़ भी हुई, जिसमें मौके पर ही 9 जवान शहीद हो गए और 25 जवान घायल हुए. घायल जवानों को बेहतर इलाज के लिए रायपुर के निजी अस्पताल में एडमिट कराया गया था.
यह दर्दनाक घटना उन लोगो के मुंह में तमाचा है जिन लोगो ने मानवाधिकार के नाम पर जमकर हो- हल्ला मचाया था और एक अधिकारी को हटाने दुनिया भर का तमाशा और अनर्गल प्रलाप करते रहे है, जिसमे तथाकथित कुछ पत्रकारों की भी जबरदस्त भूमिका रही है जो की अब पिक्चर से बिलकुल नदारद हो गए है, तो क्या ये एक सोची समझी साजिश का हिस्सा था उस अधिकारी को हटाने मात्र के लिए ? वर्ष 2018 -19 में चुनाव होने की तैयारियां चल रही है ऐसे में बस्तर पर विशेष रूप से ध्यान देने की ज़रूरत है क्योंकि मुख्यमंत्री के इन्ज़ीरम - भेज्जी रोड के उद्घाटन के बाद ही नक्सलियों ने अपनी सक्रियता दिखाते हुए इतने बड़े हमले को अंजाम दिया जिसके लिए गंभीरता से सरकार को सोचना होगा और पुलिस प्रशासन में कसावट लानी होगी और जिला प्रशासन के अधिकारियों के कार्यों की समीक्षा करनी होगी शायद कल्लूरी जैसे अधिकारी ही फ़िर से बस्तर की बिगड़ी व्यवस्था को ठीक कर सकते हैं ।
अब कहाँ चले गए वो तथाकथित आंदोलनकारी जिन्होंने कल्लूरी को हटाने का बेड़ा उठाया था कहाँ चले गए वो पत्रकार सुरक्षा की दुहाई देने वाले, यहाँ कहने को तो लोग कुछ भी कह देते है लेकिन जो मोर्चे पर रहता है वही जानता है इस तरह से जवानों पर हमले होते रहे तो जवानों का मनोबल गिरना स्वाभाविक है, क्योंकि बस्तर में तो आज भी वही लोग आदिवासी और स्थानीय निवासियों के उत्पीड़न के नाम की दुहाई देकर पुलिस प्रशासन और सरकार को नीचा दिखाने और सरकार को बदनाम करने कि पूरी कोशिश में लगे हुए हैं ?
मेरा सवाल केवल इतना है की क्या पुलिस के जवान इंसान नहीं है क्या उनका घर - परिवार नहीं है? उनके लिए क्यों मानव अधिकार के नाम पर कभी भी कुछ नहीं कहा जाता, कहाँ चले जाते हैं तथाकथित मानवीयता की दुहाई देने वाले वो मानवधिकार के रक्षक बस्तर पुलिस के लिए नक्सलियों की बारूदी सुरंग विस्फोट के हमले सिरदर्द बने हुए हैं, क्योंकि ऐसे हमलों से क्षति भी ज्यादा होती है और विस्फोट के बाद बदहवास में पुलिस बल इनका प्रतिरोध भी नहीं कर सकती । और यही कारण है कि नक्सली अपने नापाक मंसूबों में कामयाब हो जाते हैं। बारूदी सुरंगों को नाकाम करने की आज पर्यंत कोई स्थायी तथा कारगर तरकीब भी नहीं ढूंढी जा सकी है। दम तोड़ती एंटी माईंस व्हीकलें भी बस्तर में नकारा सिद्ध हुई हैं। शायद इसीलिए नक्सली बुलंद हौसलों से मुख्य मार्गों तक बेखौफ घुसपैठ करके हमलो को अंजाम दे रहे है ।
पूर्व में नक्सली कच्ची सडक़ों पर ही बारूदी सुरंगे बिछाकर वारदात को अंजाम दिया करते थे, किंतु अब उन्होंने एक विशेष किस्म की मशीन के जरिए पक्के डामरीकृत मार्गों में सुरंगे बिछाने का काम शुरू कर दिया है। इस मशीन से सडक़ के एक छोर से दूसरे किनारे तक, जमीन की सतह से पांच-सात फुट नीचे सुरंग खोदकर, मशीन के सहारे आसानी से बारूद दबा दिया जाता है। इस तकनीक से सुरंग बिछाए जाने से सडक़े खराब भी नहीं होतीं और सुरंगें रोड ओपनिंग पार्टी के नजर में भी नहीं आ पातीं।
हाल ही में सुकमा जिले में एक के बाद एक हुई लगातार बारूदी सुरंग विस्फोट की घटनाओं ने पुलिस की नींद ही उड़ा दी है। पुलिस चिंतित है कि नक्सलियों की इस कुटिल चाल का हल कैसे ढूंढा जाए और वह इसका तोड़ निकालने की जुगत में जुट गई है। सड़को को लगातार निशाना बनाए जाने के पीछे नक्सलियों की यह मंशा झलकती है कि, वे इन मार्गों में आवाजाही प्रतिबंधित करना चाहते हैं, ताकि वे अपनी गैरकानूनी गतिविधियां बेरोकटोक जारी रख सकें। हालांकि पुलिस सर्चिंग तथा अन्य कानूनी प्रक्रियाओं के निष्पादन के लिए पूर्णतया ऐहतियात बरतते हुए ज्यादातर पैदल मार्च ही किया करती है, बावजूद सड़को पर हो रहे सिलसिलेवार धमाकों ने, पुलिस की कार्यप्रणाली में नए सिरे से समीक्षा करने के लिए विवश कर दिया है।
दरअसल जिला मुख्यालय का, अंदरूनी नक्सल प्रभावी इलाकों से संपर्क विच्छेदकर नक्सली यहां अपना एकछत्र साम्राज्य कायम रखना चाहते हैं। यातायात का दबाव, पुलिस व सुरक्षा बलों की आमदरफ्त ज्यादातर सड़क मार्गों से ही होती है, इसीलिए नक्सली सड़को पर दहशत फैलाने के लिए अपनी तमाम उर्जा खपा रहे हैं। नित नई व्यूह रचनाओं से पुलिस बलों पर कातिलाना हमले कर रहे नक्सली, दरअसल बस्तर की शांति प्रक्रिया के परखच्चे उड़ाने पर आमादा हैं। इसी तारतम्य में संगठनात्मक ढांचे में व्यापक फेरबदल करते हुए नक्सलियों द्वारा आतंकी हरकतें तेज करने की रणनीति तैयार की गई है।
यहां उल्लेख करना लाजिमी होगा कि माओवादियों को इस तरह की लड़ाई में स्ट्रैटज़ी और टैक्टिस का पूरा प्रशिक्षण होता है, वे देश के किसी भी हिस्से में हुये पुलिस मुठभेड़ का पूरी गहराई के साथ विश्लेषण करते हैं, उस पर अपने साथियों से चर्चा करते हैं और फिर उसके सकारात्मक-नकारात्मक पहलू पर विचार करते हुये अपनी अगली रणनीति तय करते हैं, जबकि पुलिस में इसका नितांत अभाव है। समय की जरूरत है कि माओवादियों से लडऩे की रणनीति बने, उनके हमलों को लेकर प्रशिक्षण दिया जाये तभी कारगर ऑपरेशन किये जा सकते हैं।
बस्तर में सेना को तैनात करने की ज़रुरत नहीं है, ऐसा नहीं है कि बस्तर के सारे आदिवासी माओवादी हैं। दरअसल जो लड़ाई पुलिस लड़ सकती है, उसके बजाये सेना को उस लड़ाई में शामिल करना कोई बेहतर रणनीति नहीं होगी। उल्लेखनीय है कि माओवादी अपनी लड़ाई को हमेशा दीर्घकालीन युद्ध कहते हैं। उनके दस्तावेज़ बताते हैं कि वे दीर्घकालीन लड़ाई में पीछे हटने को एक सामान्य प्रक्रिया मानते हैं। यह संभव है कि माओवादियों को सरकार ने बैकफूट पर डाल दिया हो, लेकिन इसका मतलब यह कभी नहीं लगाया जाना चाहिये कि ऐसा करने से माओवादी हार मान लेंगे। उनका विश्वास है कि आगे-पीछे आने-जाने की प्रक्रिया में भी अंतत: वे अपनी लड़ाई में जीत हासिल ज़रुर करेंगे। जब भी माओवादी बैकफूट पर जाते हैं, तो उस अवसर का उपयोग अपनी गलतियों, कमजोरियों को समझने, उसमें फेरबदल करने और आगे की लड़ाई की तैयारी में लगाते हैं। वे इतनी आसानी से चुप बैठने वाले नहीं हैं। माओवादियों के खिलाफ अगर कारगर लड़ाई लडऩा है, तो सरकार को दीर्घ कालीन रणनीति बनानी ही होगी।
नक्सलवाद के खात्मे के लिए ठोस और नीतिगत निर्णय लेना होगा। सुरक्षा और खुफिया तंत्र को नक्सलियों के मुकाबले अधिक सुरक्षित और मजबूत बनाना होगा। इसके अलावा स्थानीय लोगों का विश्वास जीतना होगा। हमें यह समझना होगा कि सुरक्षा में जरा सी लापरवाही हमारे लिए मुश्किल खड़ी कर सकती है।